देहरादून। देवभूमि उत्तराखंड के थाती कठूड़ बूढ़ा केदार के सुप्रसिद्ध श्री गुरु कैलापीर देवता जिन्हें राजमानी देवता यानि जिनको राजा ने भी अपना आराध्य देव माना हुआ है। श्री गुरु कैलापीर का मूल स्थान चांदपुर गढ़ कुमाऊं चम्पावत में है।जँहा आज भी गुरु कैलापीर दक्छिन काली के साथ विराजमान हैं।चांदपुर गढ़ में पहले गढ़वाल और कुमाऊं के राजा बैठा करते थे। उनके इस्टदेव थे गुरु कैलापीर।
इसीलिये कैलापीर को भड़ों का देवता कहा जाता है। गुरु कैलापीर को कैलाश वीर भी कहा जाता है जिनके साथ कलयुग की सबसे बड़ी शक्ति काली है।इनका स्मरण करने से समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं। गुरु कैलापीर टिहरी राजा के सुमिरन से बूढ़ाकेदार पहुंचे। जब टिहरी पर गोरखाओं ने आक्रमण किया तभी गुरु कैलापीर अपने वीर भड़ों के साथ यंहा पहुंचे।जो आज भी बूढ़ाकेदार मन्दिर में विराजमान है। गुरु कैलापीर की पूजा कुण्डल धारी नाथ के हाथों से होती है। तथा नेजा की सजावट और श्रृंगार राजराजेश्वरी के पुजारी के हाथ से होती है। तथा गुरु कैलापीर का नेजा उठाने वाले जिन्हें निज्वाला कहते हैं कंठु सेमवाल के वंसज हैं जो भोन्दी में निवास करते हैं।कंठु सेमवाल के गले में चाँदी का कंठा और सिर पर पगड़ी होती थी।
उन्ही के वंसज भोँदी रगस्या में निवास करते हैं।गुरु कैला पीर के साथ मुख्य शक्ति आकाश भैरव है जो निज्वाला परिवार के कुल देवता हैं।तथा साथ में 54 चेले और 52 वीर भी हैं।जिनमे अगोरनाथ ,श्रीकाल,मैमन्दया,चरि नर्सिंग,काल भैरव आदि कई वीर हैं। गुरु कैलापीर का छेत्र गंगोत्री के हुरी गाउँ से थाती कठूड़ के भेटी गाउँ तक है।गुरु कैलापीर के ठकरवाल मेड,मरवाड़ी,निवालगौं,आगर,कोटी अगुंडा , पिंस्वाड़, तित्रुना, गिंवालि, जखाना आदि गाउँ के लोग है जो मंगसीर महीने के बग्वाल बलराज मेले में गाजे बाजे पारम्परिक वेशभूषा में पुण्डारा सेरा देवता के साथ सीटी और जयकारा करते हुऐ पहुंचते हैं।गुरु कैलापीर का स्मरण करने से निः संतान को संतान की प्राप्ति विदेश के काम रोजगार और अन्य मन्नत पूरी होती है।इसीलिये सबसे अधिक सोना और रुपया भेंट करते है लोग श्री गुरु कैला पीर को।आप सभी की मनोकामना पूर्ण हो।