देहरादून। “देहरादून जिला मजिस्ट्रेट कोर्ट में सुनी गई एक याचिका ने समाज की आँखें खोल दीं—जहाँ पिता ही बेटे-बहु और मासूम पोती को बेघर करने की साजिश रचते पाए गए। अदालत ने कहा, महज उम्रदराज होना संतान को घर से निकालने का लाइसेंस नहीं है।”
देहरादून जिला मजिस्ट्रेट कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया जिसने परिवार, समाज और कानून – तीनों को झकझोर कर रख दिया। आमतौर पर माना जाता है कि बुजुर्ग हमेशा पीड़ित और संतान दोषी होती है, लेकिन इस मामले में सच्चाई बिल्कुल विपरीत थी। यहाँ सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी पिता ने अपनी बहु-बेटे और चार साल की मासूम पोती को घर से बेदखल करने की साजिश रचकर भरणपोषण अधिनियम का सहारा लिया।
मामला जो अदालत तक पहुँचा
नकरोंदा सैनिक कॉलोनी, बालावाला निवासी सेवानिवृत्त अधिकारी दंपत्ति ने डीएम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा कि उनका बेटा अमन वर्मा, बहु मीनाक्षी और चार वर्षीय पोती उनकी देखभाल नहीं करते और उन्हें प्रताड़ित कर घर से निकालना चाहते हैं। पिता ने भरणपोषण अधिनियम के तहत भरण-पोषण की मांग करते हुए परिवार के खिलाफ वाद दायर किया। अपने आप को सही साबित करने के लिए पिता व्हील चेयर पर बैठ कर सुनवाई में पहुंचा पर जब जांच हुई तो वो बिल्कुल शारीरिक रूप से बिल्कुल फिट निकला।
सुनवाई में खुली सच्चाई
जिला मजिस्ट्रेट कोर्ट ने फास्ट ट्रैक पर सुनवाई की।जांच में सामने आया कि पिता पूरी तरह सक्षम हैं और चल-फिर सकते हैं। सेवानिवृत्त दंपत्ति की संयुक्त आय 55 हजार रुपये प्रतिमाह है, जबकि बेटा और बहु मिलकर मात्र 25 हजार रुपये पर गुजारा करते हैं और उसी आय से चार साल की बच्ची का पालन-पोषण भी करते हैं। कोर्ट ने पाया कि असलियत में माता-पिता ही बहु-बेटे को बेघर करने की योजना बना रहे थे और इसके लिए भरणपोषण अधिनियम का सहारा लिया गया।
इस पर डीएम कोर्ट ने माता-पिता की याचिका को निरस्त कर दिया और बहु-बेटे को घर में कब्जा प्रतिस्थापित किया। साथ ही यह भी आदेश दिया गया कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हर माह दो बार निरीक्षण कर यह सुनिश्चित करेंगे कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के जीवन में हस्तक्षेप न करें।
परिवार में शांति व्यवस्था बनी रहे और किसी के अधिकारों का हनन न हो।
फैसले का मानवीय पहलू
इस प्रकरण ने समाज की उस कड़वी हकीकत को उजागर किया, जहाँ कभी-कभी माता-पिता भी निजी स्वार्थ के चलते अपने बच्चों को ही लाचार और दोषी ठहराने की कोशिश करते हैं। कोर्ट का यह फैसला न केवल बहु-बेटे और मासूम बच्ची को राहत देने वाला है बल्कि यह संदेश भी देता है कि कानून का दुरुपयोग करने वालों की चाल अब नहीं चलेगी।
नजीर बना यह फैसला
- भरणपोषण अधिनियम के दुरुपयोग पर कड़ी नकेल।
- मासूम बच्ची के भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में मानवीय संवेदनशीलता।
- समाज को संदेश कि पारिवारिक रिश्तों में न्याय और मानवीयता सबसे ऊपर है।
यह फैसला साबित करता है कि कानून सिर्फ कागज़ी धाराओं का नाम नहीं, बल्कि संवेदनाओं और न्याय का प्रहरी है। बुजुर्गों की इज़्ज़त और अधिकार उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितना बहु-बेटे और बच्चों का भविष्य। अदालत ने दिखा दिया कि न्याय वहीं है, जहाँ संवेदनाएँ जीवित हैं।